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पुराने दिनकाश वापिस ला सकें। प्रकृति को हटा कर नहीबल्कि उसके साथ जी सकें।।

काँच के शीशे के भीतर बैठ कर क्या महसूस कर पाते होंगे बारिश कि भीनी भीनी ख़ुशबू को।

क्या कभी गीली ज़मीन पर लेट कर छुआ है इन बूँदो को अपनी पलकों से?….रूह छू जाती हैं।।

कुछ ऐसी ही अनुभूतियाँ मेरे बचपन की जो आज कि भागती दौड़ती हुई ज़िंदगी में कहीं खो गयी हैं।

कब और कैसे खो गयी, यह तो पता नहीं चला पर वापिस ज़रूर ला सकते हैं।।

ऐसी जीवन शैली जिसमें गाड़ियों के पहिए सी रफ़्तार ना हो,

पैदल चलने का लुत्फ़ हो।

जिसमें बड़े और बच्चे अलग अलग बैठ कर अपने अपने मोबाइल में नहीं,

पर एक दूसरे के साथ ludo खेलने में खुश हों।

जहां बनावटी पिज़्ज़ा बर्गर नही,

माँ की रसोई में पूड़े बन्ने की ख़ुशबू का इंतेज़ार हो।

जहां दिवाली पर महँगे तोहफ़े नहीं,

एक दूसरे से मिलने की, अपने हाथों से मिठाई खिलाने की ख़ुशी हो।

भिन्न भिन्न प्रकार के यंत्रो से बना हुआ खाना नहीं,

चूल्हे की धीमी आँच में पके हुए सरसों के साग का स्वाद हो।।